बच्चे भी तनाव का शिकार? सोशल मीडिया और अकेलापन बना रहा बीमार…
Kids Mental Health: तनाव का शिकार युवा या वयस्क ही नहीं बच्चे भी हो सकते हैं। कम उम्र वाला कोई भी बच्चा तनाव का शिकार हो सकता है। आमतौर पर बच्चे का नाराज होना या रूठना स्वाभाविक होता है, लेकिन अगर बच्चे की खामोशी में असामान्य लक्षण झलक रहे हैं तो उसे बिल्कुल नजरअंदाज ना करें।
Mental Health: आजकल ज्यादातर घरों में पति और पत्नी दोनों ही वर्किंग होते हैं और इस वजह से कई बार बच्चों को अपनी परेशानियां माता-पिता को बताने का मौका नहीं मिलता या फिर उनमें इतनी अच्छी अंडरस्टैंडिंग नहीं बन पाती है कि वह अपनी परेशानियां खुलकर शेयर कर सकें. इस वजह से बच्चे स्ट्रेस का शिकार भी हो सकते हैं.
बच्चों के मां बाप ही इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि इस उम्र के बच्चे घर का तूफान होते हैं. घर के एक कमरे में शांत अपनी दुनिया में तो बच्चा रहता है लेकिन इतने एटीट्यूड के साथ कि अगर आपने उसके साथ कोई छेड़छाड़ की तो आपसे बढ़कर उस दुनिया का विलेन कोई नहीं. लेकिन इतने एटीट्यूड वाले टीनएजर अब क्यूं अपना ही प्रेशर नहीं झेल पा रहे हैं. आईये इस आर्टिकल से समझने की कोशिश करते है…
कॉउंसलिंग रिपोर्ट्स से पता चला कि जब पेरेंट्स हर वक्त बच्चें की तुलना दूसरों से करते थे. उससे हाई एक्सपेक्टशंस रखते थे, जिसकी वजह से बच्चा हमेशा अपने नंबर और अपने रिजल्ट को लेकर प्रेशर में रहता था. उसे हमेशा इस बात का डर रहता था कि अगर वह फेल हो गया तो क्या होगा? ऐसे समय में जरुरत है बच्चे ने भी ग्रैजुअली और इमोशंस के साथ रेगुलेट करने और उसकों अपना गोल को सेट करना सीखाना. जिससे वो इमोशनली स्टेबल और मोटिवेटेड हो पाए.
टीनएजर स्ट्रेस और डिप्रेशन का शिकार?
एक मीडिया इंटरव्यू में क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ भावना बर्मी बताती हैं, आज के समय काफी ज्यादा टीनएजर थेरेपी और काउंसलिंग के लिए आ रहे हैं. इसके पीछे का कारण ये भी है कि अब लोग मेन्टल हेल्थ को लेकर जागरूक हो रहे हैं. अब इसे लोग समझ रहे हैं. बच्चे और उनके माता-पिता खुले तौर पर मदद करते हैं. वह कहती हैं अब बच्चों पर सोशल मीडिया, एकेडमिक, कंपटीशन और पैरेंटल एक्सपेक्टेशन का बहुत ज्यादा दबाव है. बच्चों में कंपटीशन बढ़ गया है, जो स्ट्रेस और एंजायटी को ट्रिगर करता है.
एक मीडिया इंटरव्यू रिपोर्ट्स के अनुसार, एक तो कॉम्पिटेटिव दुनिया है, दूसरा सोशल मीडिया है, जैसे कुछ बच्चे अपने अच्छे मार्क्स के पोस्ट सोशल मीडिया पर शेयर करते हैं. इससे बच्चों के अंदर कॉम्पिटेटिव की भावना और बढ़ती है. दूसरों की चीज देखकर बच्चों के अंदर आता है कि उनके पास ये नहीं है या फिर उनके इतने नंबर क्यों नहीं आ रहे हैं. बच्चों के हार्मोन में भी कई बदलाव होते हैं. उनके डिसीजन मेकिंग, इमोशन रेगुलेट करना और किसी स्ट्रेसफुल सिचुएशंस को फेस करना, उनके लिए मुश्किल हो जाता है. 13 साल से 16 के बच्चे इस चीज से बहुत ज्यादा जूझते हैं कि मैं कौन हूं, मेरी लाइफ में अच्छी चीजें क्या है? अपनी आइडेंटिटी डिफाइन करने में बच्चों के अंदर एंजायटी बहुत ज्यादा आती है.
कोरोना में Lockdown के बाद बढ़ी समस्या?
एक रिपोर्ट (वाशिंगटन यूनिवर्सिटी) के अनुसार, कोरोना ने टीनएजर के दिमाग पर गहरा घाव दिया है. लंबे समय तक घर में रहने की वजह से टीनएजर लड़की और लड़कों के दिमाग पर काफी गहरा असर हुआ. यूनिवर्सिटी की रिसर्च में पाया गया, टीनएज लड़कियों का दिमाग लड़कों की तुलना में करीब 4.2 साल ज्यादा बूढ़ा हुआ जबकि लड़कों का दिमाग उनकी रियल एज से करीब 1.4 साल ज्यादा बड़ा हो गया. यूनिवर्सिटी ने 9 साल से 17 साल के बीच के बच्चों पर ये रिसर्च किया था. जिसके नतीजे चौकाने वाले आये थे.
ज्यादा दुलार बच्चों को बना रहा कमज़ोर?
आज कल बच्चे ने रोना शुरू किया और मां ने बच्चे को उसके मनपसंद की चीज़ पकड़ा दी. आजकल ये ज्यादातर पैरेंट्स करने लगे हैं. कुछ मीडिया आर्टिकल के अनुसार, कई बार पेरेंट्स अपने बच्चों को बहुत ज्यादा पैंपर करते हैं. ऐसे में बच्चे अपनी हर समस्या के लिए अपने पेरेंट्स पर डिपेंड हो जाते हैं. जब उनकी लाइफ में चैलेंज आता है तो वो उसे डील नहीं कर पाते हैं. पेरेंट्स को बैलेंस मेंटेन करके रखना बहुत जरूरी होता है. आप अपने बच्चों के लिए सपोर्टिव रहे लेकिन उन्हें प्रॉब्लम सॉल्विंग और क्रिटिकल थिंकिंग के लिए प्रोत्साहित करने करें.
अकेलापन बना रहा बीमार
रिपोर्ट्स के अनुसार, अब पेरेंट्स की तरफ से भी बच्चों के लिए सुपरविजन कम है. काम पर जाने की मजबूरी में बच्चों को अकेला छोड़ना पड़ता है, ऑनलाइन क्लासेस चलती हैं तो बच्चे स्क्रीन पर लगे रहते हैं, वो स्क्रीन पर लगे हुए कई चीजों के विक्टिम हो जाते हैं. बहुत देर तक केवल स्क्रीन ही देखने की वजह से वो अकेले रहना पसंद करने लगते हैं. किसी से इंटरेक्शन बंद कर देते हैं. वो स्क्रीन में ही बिजी रहने लगते हैं. अगर उनको खेलना भी है तो वो स्क्रीन पर ही खेलने लगते हैं. इसमें पेरेंट्स का बहुत इंपॉर्टेंट रोल है. वो बच्चों को बाहर निकालने के लिए फोर्स भी नहीं करते हैं.
एक मीडिया इंटरव्यू के अनुसार डॉ. आशिमा कहती हैं, अब न्यूक्लियर फैमिली सिस्टम भी है. ऐसे में पेरेंट्स अगर वर्किंग हैं तो बच्चा अकेला रहता है. घर में बच्चों के साथ खेलने और बात करने के लिए कोई नहीं है. इन सब चीजों को लेकर बच्चे अंदर-अंदर ही सोचते रहते हैं. वो किसी के साथ शेयर नहीं करते हैं. जिसकी वजह से उनके अंदर नेगेटिविटी बनने लगती है. वो अपनी नेगेटिविटी से बाहर नहीं निकल पाते, वो बढ़ता जाता है. जिसकी वजह से वो डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैंजब उन्हें घर से बाहर निकलने के लिए कहा जाता है, उन्हें सोशल एंजायटी होने लगती है. वो लोगों के बीच नहीं जाना चाहते हैं क्योंकि इतने दिनों से उन्होंने किसी से इंटरेक्शन ही नहीं किया है.
सिंगल चाइल्ड होने का भी असर
सिबलिंग्स का भी रोल बहुत इंपॉर्टेंट है. आज के समय में ज्यादातर लोग एक ही बच्चे प्लान कर रहे हैं. उनके पास सिबलिंग्स भी नहीं हैं कि वो अपनी फीलिंग उन्हें शेयर कर सकें. अगर मम्मी-पापा ने डांट दिया तो वह किसी से का भी नहीं पाते. इससे भी उनके अंदर नेगेटिविटी बढ़ती चली जाती है.
बदला पैरेंटिंग का अंदाज़
बड़े लोग मज़ाक में अक्सर कहते हैं, हमें तो मां एक थप्पड़ में ठीक कर दिया करती थी सारा डिप्रेशन दूर हो जाता था. पहले के जमाने में मेन्टल हेल्थ को समझने और एक्नॉलेज करने की अवेयरनेस नहीं थी. एक थप्पड़ या स्ट्रिक्ट पेरेंटिंग से बच्चे शांत जरूर हो जाते थे लेकिन उनके इमोशंस सरप्रेस हो जाते थे. वो बाद में दूसरे इश्यूज बन करके सामने आते थे. वह कहती हैं, अब परिस्थितियां भी बदल गई हैं. आज के टाइम में बच्चे इमोशनल और सोशल इंडिपेंडेंस के साथ वैलिडेशन भी चाहते हैं.
सोशल मीडिया का प्रेशर ?
सोशल मीडिया का भी बच्चों के ऊपर कई तरह का प्रेशर है. जिसकी वजह से उन्हें कई तरह की समस्या करना पड़ता है. खासकर टीनएजर पर इसका सबसे ज्यादा प्रभाव है.
कंपेरिज़न कल्चर : बच्चे अपने आपको किसी इनफ्लुएंसर से कंपेयर करने लगे हैं, जो उनके सेल्फ वर्थ को इंपैक्ट करता है.
फोमो (फेयर ऑफ़ मिसिंग आउट): हर वक्त एक-दूसरे से कनेक्ट रहना और परफेक्ट लाइफ चाहते हैं.
साइबर बुलिंग: सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग और बुलिंग कॉमन बात हो गई है, जो बच्चों के मेंटल हेल्थ को बहुत प्रभावित करता है.
एडिक्शन : सोशल मीडिया का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करने से डोपामाइन इंबैलेंस होता है. जो एंजायटी और बच्चों के मूड को ट्रिगर करता है.
कितने टीनएजर पर असर?
कुछ रिपोर्टर्स के बताती हैं, भारत में 20 से 30 फीसदी टीनएजर डिप्रेशन और एंजायटी से स्ट्रगल कर रहे हैं. पेंडेमिक के बाद ये नंबर बहुत बढ़े हैं. सुसाइड रेट भी पिछले कुछ सालों में बढ़े हैं. जो हमें बताता है कि लोगों के मेंटल हेल्थ पर काम करना कितना जरूरी है.
बिना काउंसलिंग और बिना दवा के भी बदलाव संभव!
एक्सपर्ट कहते हैं यह बेहद जरूरी है कि बच्चों के साथ बातचीत करने के लिए वक्त निकाला जाए. उन्हें यह विश्वास दिलाएं की सिचुएशन चाहें जो भी हो आप उनके साथ हैं. बच्चों के साथ बैठकर उनकी समस्याओं को ध्यान से सुनें और सुलझाएं, क्योंकि कुछ मानसिक परेशानियां ऐसी होती हैं, जो बिना काउंसलिंग और बिना दवाओं के भी ठीक की जा सकती है.
प्यार से समझाने की कोशिश करें
अगर आपका बच्चा खराब मेंटल हेल्थ से जूझ रहा है तो उसके मूड में कई तरह के बदलाव देखने को मिल सकते हैं, जैसे चिड़चिड़ापन, अकेले रहना, स्कूल न जाना, पढ़ाई में मन न लगना. ऐसी स्थिती में बच्चे पर गुस्सा करने की बजाय उसे प्यार से समझाने की कोशिश करें. आपके गुस्सा करने से बच्चे की मेंटल हेल्थ पर और भी ज्यादा बुरा असर पड़ सकता है.