
जयंती पर विशेष: असमानता के खिलाफ संघर्ष के बड़े नायक थे ज्योतिबा फुले
जाति, वर्ण, लिंग और परंपरा के आधार पर सामाजिक विभेद की तल्ख सच्चाई मनुष्य की सभ्यता और उसकी पूरी विकास यात्रा पर सवाल उठाती रही है।
ये सवाल मानवीय अस्मिता के लिहाज से तो अहम हैं ही, लेकिन इसके लिए हुए संघर्ष को जानना-समझना भी जरूरी है।
दुनियाभर में औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की जड़ें लंबे समय तक इसलिए जमीं रहीं क्योंकि सामाजिक समरसता के खिलाफ विभेद की रणनीति कारगर रही।
अलबत्ता इस असमानता के खिलाफ संघर्ष भी काफी पहले शुरू हो गया था। भारत में इस संघर्ष के एक बड़े नायक थे ज्योतिबा फुले।
ज्योतिबा का जन्म 11 अप्रैल, 1827 को पुणे में हुआ था। उनका पूरा नाम ज्योतिराव गोविंदराव फुले था। वे 19वीं सदी के एक बड़े समाज सुधारक और विचारक थे।
ज्योतिबा फुले ने भारतीय समाज में प्रचलित जाति आधारित विभाजन और लैंगिक भेदभाव की पुरजोर मुखालफत की।
देश से छुआछूत को खत्म करने और समाज के वंचित तबके को सशक्त बनाने में अहम किरदार निभाने वाले ज्योतिबा फुले ने खासतौर पर महिला शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक महत्त्व का कार्य किया।
महिलाओं की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा ने 1854 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था।
लड़कियों को पढ़ाने के लिए शिक्षिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री को इस योग्य बनाया।
उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की कोशिश की, किंतु जब ज्योतिबा आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाव डालकर पति-पत्नी को घर से निकलवा दिया गया।
इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका जरूर, पर शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए।
महिलाओं को लेकर उनकी प्रगतिशील सोच का दायरा कितना खुला और व्यापक था इसका अंदाजा इस बात से भी लगाा जा सकता है कि वे बाल-विवाह विरोधी
और विधवा-विवाह के न सिर्फ समर्थक थे बल्कि इसके लिए उन्होंने तब कई क्रांतिकारी प्रयास किए जब इस दिशा में लोगों ने तार्किक ढंग से सोचना-समझना भी शुरू नहीं किया था।