कार्यकर्ता-जनप्रतिनिधि की उपेक्षा, सांसदों की निष्क्रियता ने तोड़ा 400 का सपना
BJP Election Results Analysis: लोकसभा चुनाव 2024 में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने 400 से अधिक लोकसभा सीटें हासिल करने का लक्ष्य रखा था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी में चुनावी चाणक्य माने जाने वाले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बाद भी यह टारगेट अधूरा ही रह गया. बीजेपी अपने दम पर बहुमत भी हासिल नहीं कर पाई, जबकि उत्तर प्रदेश (यूपी) में तो उसे इंडिया अलायंस के बैनर तले आने वाली समाजवादी पार्टी (सपा) ने पछाड़ दिया.
लोकसभा चुनाव 2024 में बीजेपी को 240 तो एनडीए के हिस्से 293 सीटें आई हैं. वहीं, कांग्रेस को 99 तो इंडिया अलायंस को 232 सीटें हासिल हुई हैं.
अपेक्षित परिणाम न मिलने के बाद पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी का एक कथन इंटरनेट मीडिया पर शेयर हो रहा है, ‘मेरी एक बात गांठ बांध लेना हमारा एक भी पुराना कार्यकर्ता टूटना नहीं चाहिए नए चाहे दस इस टूट जाए जाएं क्योंकि पुराना कार्यकर्ता हमारी जीत की गारंटी है।’ इस कथन की प्रासंगिकता इसलिए क्योंकि भाजपा के खराब प्रदर्शन के कारणों में कार्यकर्ताओं की उदासीनता, सांसदों की निष्क्रियता, विधायकों का अपेक्षित सहयोग न मिलना और लाभार्थियों पर अति निभर्रता ही निकलकर आ रहे हैं। कार्यकर्ता-जनप्रतिनिधि की उपेक्षा तथा लाभार्थियों पर निर्भरता का सबसे बड़ा उदाहरण सीतापुर लोकसभा सीट है। यहां से कांग्रेस के टिकट पर जीते राकेश राठौर 2017 में भाजपा से विधायक चुने गए थे। अफसरों के यहां सुनवाई न होने का आरोप लगाकर वह लगातार सरकार के खिलाफ मुखर रहे।
पुराने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा और बाहरियों पर रही निर्भरता:
पूर्व विधायक अविनाश त्रिवेदी कहते हैं कि कार्यकर्ताओं के छोटे-छोटे काम अपने नेताओं से पड़ते हैं, अगर वह पार्टी को जनाधार देते हैं तो उनको भी एक आस होती है। जन प्रतिनिधियों को यह सोचनाचाहिए कि कार्यकर्ता केवल बड़े नेताओं से कंधे पर हाथ रखवाकर फोटो खिंचवाने के लिए पार्टी में नहीं आते। वह क्षेत्र में विचारधारा की लड़ाई लड़ते हैं। और उन्हें कई बार अपमान भी सहते हैं। संगठन की कड़ी में जितना महत्वपूर्ण विधायक और सांसद होते हैं, उतना हीमहत्व एक कार्यकर्ता और पन्ना प्रमुख होते हैं। वे जब नाराज होते हैं, तो दिल से आपका नुकसान तो नहीं चाहते, लेकिन फायदा भी नहीं होने देते।
पुराने कार्यकर्ताओं को दरकिनार करना भी बड़ा कारण-
BJP का नई टीम पर ज्यादा भरोसा करना घातक साबित हुआ। भाजपा बाराबंकी और मोहनलाल गंज से लगातार दो बार जीती, लेकिन इस बार सवा दो लाख से हार गई। यहां कुर्सी विस क्षेत्र के एक पुराने कार्यकर्ता कहते हैं कि नए लोगों को जोड़ने के साथ पुराने को सहेजा जाना चाहिए। यहां यह हाल था कि दोपहर बाद से कई जगह पन्ना प्रमुख नदारद हो गए थे। एक पूर्व पदाधिकारी ने कहा कि चुनाव के ठीक पहले यहां ऐसा जिलाध्यक्ष थोप दिया गया.
भाजपा की विचारधारा के विपरीत था। पुराने कार्यकर्ताओं से संपर्क करने की जगह उन्होंने अपनी टीम बनानी शुरू कर दी। बाराबंकी में तो कई विधायक प्रचार के दौरान पूरी तरह से निष्क्रिय रहे और यहां की सभी विधानसभा सीटों पर भाजपा हारी। लखीमपुर खीरी में केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र टेनी को संगठन और मतदाताओं की नाराजगी ही भारी पड़ी। चर्चा है कि नाराजगी वाले इस कुनुबे में एक नहीं, तीन विधायक शामिल रहे। चुनाव प्रचार के दौरान मंच से पलिया विधायक पर टिप्पणी की गई। गौला विधायक तथा प्रत्याशी की तल्खी पूरे चुनाव में दिखी और गोला विस सीट भाजपा हार गई। निघासन विधायक को तो प्रत्याशी संग देखा ही नहीं गया, हालांकि इस सीट पर व्यक्तिगत प्रभाव से भाजपा को जीत मिली। भाजपाई सूत्र बताते हैं कि खीरी के
नौकरशाहों पर भरोसा भी बना कारण –
उप्र की राजनीति में नौकरशाहों का भी खूब बोलबाला रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में पुलिस विभाग को अलविदा कहकर चुनाव मैदान में उतरे आइपीएस अधिकारी असीम अरुण और ईडी के अधिकारी राजेश्वर सिंह जीते थे। पर, लोस चुनाव के नतीजे इस बार नौकरशाहों के पक्ष में नहीं रहे। चार पूर्व अधिकारियों व एक पूर्व जज कामयाब नहीं हो सके।
पूर्व आइपीएस अधिकारी अरविंद सेन ने भाकपा के टिकट पर फैजाबाद सीट से ताल ठोंकी थी पर उन्हें हार का सामना करना पड़ा। सेन चौथे स्थान पर रहे और उन्हें कुल 15,367 वोट ही मिले। प्रांतीय पुलिस सेवा संवर्ग के पूर्व अधिकारी शुभनारायण गौतम ने
4 पूर्व अधिकारियों व एक ने आजमाई थी किस्मत पूर्व जज हाथी की सवारी कर कौशाम्बी सीट से प्रयास किया था पर नाकाम रहे। वह तीसरे पायदान पर रहे। मथुरा सीट से बसपा के टिकट पर पूर्व आइआरएस अधिकारी सुरेन्द्र सिंह ने दावेदारी तो की पर वह भाजपा व कांग्रेस प्रत्याशियों के मुकाबले पीछे रह गए। वह तीसरे नंबर पर रहे। विद्युत विभाग के सेवानिवृत्त अधिशासी अभियंता सुरेश गौतम ने जालौन और न्यायिक सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी मनोज कुमार ने नगीना से चुनाव मैदान में उत्तरे पर जीत का स्वाद नहीं चख सके। ये दोनों भी मुकाबले में तीसरे पायदान पर रहे।
पुराने कार्यकर्ताओं को दरकिनार करना पड़ा भारी :
राजनाथ की कम मतों से जीत के कारण में बड़ा मुद्दा पार्षद-कार्यकर्ता की अपेक्षा रहा. भाजपा में खींचतान बढ़ गई है। हर चुनाव में उत्साह से लबरेज दिखने वाले जमीनी कार्यकर्ता निराशाभरी जीत के लिए संगठन के प्रमुख पदाधिकारियों को ही जिम्मेदार बता रहे हैं और इसकी रिपोर्ट भी तैयार की जा रही है। कई पार्षदों ने कम मतों से हुई जीत के लिए जिम्मेदारों का नाम भी हाईकमान को भेजने का निर्णय लिया है। यह भी बताया कि वे अपना वार्ड जीत कर आए हैं और जहां कम मत मिले, उसका कारण भी बता रहे हैं। कार्यकर्ताओं का कहना है कि
चुनाव कार्यालय में उन लोगों को बेवजह के लिए हर दिन बैठक में बुला लिया जाता था और इससे उनका तीन से चार घंटा बर्बाद हो जाता था, जिस कारण वह जनता के बीच नहीं जा पाए। कई पार्षदों का कहना है कि चुनाव प्रचार में लगाए गए प्रवासी, जो गुजरात, महाराष्ट्र नोएडा, चंदौली, मुजफ्फरनगर से आए थे, वे भी हर दिन बैठक बुलाते थे। इसके अलावा मंडल अध्यक्ष,
- कार्यकर्ताओं ने कहा-हर दिन हलवासिया बिल्डिंग में बने कार्यालय में बुलाया जाता था पर्चियां न बांटने का आरोप जड़ा
- संयोजक, सह संयोजक, नगर अध्यक्ष, प्रभारी की तरफ से हर दिन बैठक बुलाकर निर्देश दिए जाते थे। इसमें आने-जाने में ही डेढ़ घंटा लग जाता था और बैठक भी एक घंटे से कम नहीं होती थी जबकि निर्देशों को अगर मैसेज कर दिया जाता तो बेहतर होता।
अपने ऊपर लग रही तोहमत को लेकर पार्षद व अन्य पदाधिकारी भी मौन नहीं है। वे कह रहे हैं कि पर्ची को बंटवाने का जिम्मा संगठन, बूथ अध्यक्ष, सेक्टर संयोजक और मंडल अध्यक्ष के जिम्मे थी। इसके लिए उन्हें खर्च भी दिया गया था, लेकिन हकीकत में पर्ची तक बांटने में भी लापरवाही की गई। पार्षदों का कहना था कि महानगर अध्यक्ष आनंद द्विवेदी, पूर्व अध्यक्ष व एमएलसी के साथ ही लखनऊ लोकसभा चुनाव प्रभारी का काम देख रहे मुकेश शर्मा के बीच तालमेल का अभाव था, जिस कारण चुनाव कुप्रबंधन की भेंट चढ़ गया था।
अठारहवीं लोकसभा चुनाव के नतीजे सत्ताधारी भाजपा के लिए बड़े खतरे का संकेत देने वाले हैं। लोकसभा से लेकर विधानसभा के चुनाव में ‘भगवा’ दल की सीटें तो कम हो ही रही हैं, जनाधार भी खिसकता जा रहा है। पांच वर्ष में भाजपा के चाहने वाले 65 लाख घट गए हैं। सपा की लोकसभा में पहले से सीटें तो जरूर बढ़ रही हैं, लेकिन पिछले विस चुनाव से उसका जनाधार लगभग बराबर ही है। विधानसभा के बाद लोकसभा चुनाव में भी अकेले ही ताल ठोकने वाली बसपा का वोट बैंक तेजी से खिसक रहा है, उससे कहीं तेजी से कांग्रेस का बढ़ रहा है।
2019 में लोस चुनाव के तीन वर्ष बाद राज्य में वर्ष 2022 में विधानसभा और अब 2024 में लोकसभा के चुनाव दौरान हुए कराए गए हैं। पांच वर्ष के इन तीनों ही चुनाव में भाजपा की केंद्र से लेकर राज्य में सरकार रही। एक दशक से केंद्र में मोदी सरकार और सात वर्ष से राज्य में योगी की सरकार है।
प्रदेशवासियों के हित में मोदी-योगीकी डबल इंजन की सरकार लगातार तमाम कार्य करती रहती है। खासतौर से गरीब शोषित-वंचित समाज के पार्टियों को मिले मतों के ब्योरे पर गौर करने से स्पष्ट है कि भाजपा का पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से लगातार जनाधार खिसकता जा रहा है। भाजपा को पिछले लोकसभा चुनाव में 4.29 करोड़ वोट मिले थे जो कि तीन वर्ष बाद विधानसभा चुनाव में घटकर 3.81 करोड़ रह गए। मौजूदा लोकसभा चुनाव में तो और खिसककर 3.62 करोड़ पहुंच गए हैं। मतलब यह है कि पिछले पांच वर्ष में लगभग 65.91 लाख मतदाता
एक बड़ा कारण यह भी माना जाता है में कि जिस तरह से मई-जून की भीषण भी गर्मी में मतदान हुआ, उसमें भाजपा के वोटर घर से निकलने की हिम्मत नहीं जुटा सके। भाजपा के वरिष्ठ नेता और योगी सरकार में वित्त व संसदीय कार्यमंत्री सुरेश कुमार खन्ना का मानना है कि अति आत्मविश्वास के चलते भाजपा समर्थक मतदाता वोट डालने ही नहीं पहुंचे। डबल इंजन की सरकार ने प्रदेश में विकास कराने में पिछले सारे रिकार्ड तोड़े हैं, लेकिन इस