
पॉलिटिक्स की रेवड़ियां बनी पांव की बेड़ियां, हिमाचल में दिखा ट्रेलर! कैसे होगा विकास?
Free Culture in Politics: चुनावों में लोकलुभावने वादों का दाव आजकल सभी राजनीतिक पार्टियों का मुख्य हथियार बन गया है. जनता इन झूठे वादों में हर बार फस जाती है. जिसका खामियाजा उस क्षेत्र की जनता और उस राज्य को भुगतना पड़ता है. ये पॉलिटिक्स की रेवड़ियां उस क्षेत्र के विकास में बाधा बन जाती है. इसका ताजा उदाहरण हिमांचल राज्य है.
हिमाचल प्रदेश में मुफ्त की रेवड़ियों की वजह से आर्थिक संकट बढ़ता जा रहा है। मुख्यमंत्री और उनके मंत्रियों ने दो महीने की सैलरी नहीं लेने का ऐलान किया है। विधायकों से भी ऐसा ही करने की अपील की गई है। हिमाचल की मौजूदा हालात वहां की राजनीतिक पार्टियों के साथ-साथ जनता के लिए भी सरदर्द बना है.
पॉलिटिक्स में मुफ्त की रेवड़ियां कैसे पांव की बेड़ियां बन जाती हैं, इसका उदाहरण है हिमाचल प्रदेश। जब सत्ता में आने का शॉर्ट कट बन जाती हैं रेवड़ी पॉलिटिक्स तो संकट आएगा ही। आज नहीं तो कल। हिमाचल प्रदेश एक चेतावनी है। हिमाचल प्रदेश एक सबक है। अगर गैर-जिम्मेदार तरीके से, चुनावी फसल काटने के मकसद से मुफ्त की रेवड़ियों का चलन चलता रहा, लोकलुभावन वादों की आंच पर पॉलिटिक्स चमकाने की रेसिपी पकती रही तो हालत खराब होंगे। जनता मुफ्त की रेवड़ियों के चक्कर में पार्टियों की झोली वोट से तो भर देगी लेकिन उसकी कीमत भी उसे ही चुकानी पड़ेगी।
हिमाचल प्रदेश चर्चा में इसलिए है कि सूबे की खस्ता-हाल आर्थिक स्थिति के मद्देनजर मुख्यमंत्री, मंत्री, बोर्डों को चेयरमैन और वाइस-चैयरमैन के साथ-साथ चीफ पार्लियामेंट सेक्रटरी दो महीने का वेतन-भत्ता नहीं लेंगे। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने राज्य के सभी विधायकों से भी ‘जनहित’ में दो महीने की सैलरी नहीं लेने की अपील की है। लेकिन मंत्रियों, विधायकों के 2 महीने की सैलरी नहीं लेने से होगा क्या? ये ऊंट के मुंह में जीरा भी तो नहीं है। इससे भले ही राज्य की खस्ताहाल इकॉनमी पर कोई असर नहीं पड़े लेकिन मुख्यमंत्री और कैबिनेट ये संदेश देने और हमदर्दी हासिल करने में जरूर कामयाब हो सकते हैं कि उनके लिए जनता की भलाई सबसे ऊपर है!
मुफ्त की रेवड़ियों की सौगात बनी आफत!
वर्ष 2022 में हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल करके कांग्रेस ने बीजेपी को सत्ता से बेदखल किया। सुखविंदर सिंह सुक्खू मुख्यमंत्री बने। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती चुनाव में जनता को लोकलुभावन वादों के रूप में दी गईं ‘चुनावी गारंटियों’ को पूरा करने की थी।
बता दें कि कांग्रेस ने नौकरी-रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था बेहतर करने जैसे वादे बढ़-चढ़कर किए दिए थे. लेकिन कई वादे ऐसे थे जो पहली ही नजर में रेवड़ी कल्चर की चाशनी में डूबे दिख रहे थे। मसलन, 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली, 19-60 उम्र की महिलाओं के लिए हर महीने 1500 रुपये, ओल्ड पेंशन स्कीम को लागू करना आदि। अब सरकार बनने के महज 2 साल के भीतर नौबत ये आ गई कि मुख्यमंत्री और मंत्रियों को दो महीने की सैलरी नहीं लेने का ऐलान करना पड़ रहा है।
हिमाचल प्रदेश का सालाना बजट 58,444 करोड़ रुपये है। इसमें से करीब 42 हजार करोड़ तो सिर्फ सैलरी, पेंशन और पुराने कर्ज चुकाने के मद में चला जा रहा है। अब शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सड़क, इन्फ्रास्ट्रक्चर और बाकी विकास कार्य कैसे होंगे? महिलाओं के लिए डायरेक्ट कैश बेनिफिट के मद में सालाना 800 करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। ओल्ड पेंशन स्कीम और मुफ्त बिजली का खर्च ऊपर से। सिर्फ महिलाओं के लिए 1500 रुपये महीने वाली योजना, मुफ्त बिजली और ओल्ड पेंशन स्कीम पर ही सरकार का तकरीबन 20 हजार करोड़ रुपये खर्च हो रहा है। ऊपर से राज्य कर्ज के बोझ तले दबता जा रहा है। आलम ये है कि केंद्र सरकार को राज्य के कर्ज लेने की सीमा को घटाने पर मजबूर होना पड़ा है।
बता दें कि मार्च 2024 तक हिमाचल प्रदेश पर 86,600 करोड़ रुपये का भारी-भरकम खर्च है। आरबीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2022 में सूबे में कांग्रेस सरकार के सत्ता में आने के समय राज्य पर 68,896 करोड़ रुपये का कर्ज था। दो साल से भी कम समय में कर्ज का बोझ करीब 18 हजार करोड़ रुपये और बढ़ गया है। राज्य में आर्थिक संकट गहरा गया है। हालत ये है कि राज्य सरकार 28 हजार कर्मचारियों के पेंशन, ग्रैच्युटी और दूसरे मद के 1000 करोड़ रुपये दे ही नहीं पाई है।
मुफ्त की रेवड़ी से जन-कल्याण के वादे
मुफ्त बिजली-पानी जैसी रेवड़ियों का रिवाज तेजी से बढ़ा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार फ्रीबी पॉलिटिक्स यानी मुफ्त की रेवड़ियों के कल्चर को लेकर चेता चुके हैं। रेवड़ी कल्चर पर समय-समय पर बहस भी छिड़ती है। राजनीतिक दल अक्सर मुफ्त की रेवड़ियों की अक्सर ये कहकर बचाव करते हैं कि ये जनता की भलाई के लिए है। ये भी सवाल उठाते हैं कि ‘हमारी सौगात रेवड़ी, लेकिन आपकी सौगात स्कीम’ क्यों? मुफ्त बिजली अगर मुफ्त की रेवड़ी है तो मुफ्त अनाज मास्टरस्ट्रोक क्यों? ये बहस चलती रहेगी लेकिन हकीकत यही है कि चादर से बाहर पैर पसारेंगे तो दिक्कत तो होगी ही। गरीब और वंचित तबके की भलाई वाली योजनाएं देश या राज्य के विकास के लिए जरूरी हैं और सरकारों का फर्ज भी हैं लेकिन इसमें और रेवड़ी वाले चुनावी हथियार में फर्क समझना होगा।
सियासी फायदे जैसे शॉर्ट-टर्म उद्देश्यों के खातिर चलने वाली लोकलुभावन योजनाओं से जनहित नहीं होने वाला बल्कि ये आगे चलकर जनता पर ही बोझ बनेगा। मुफ्त की रेवड़ी बनाम जन-कल्याणकारी योजना की बहस चलती रहेगी लेकिन हिमाचल प्रदेश एक सबक की तरह है कि मुफ्त की रेवड़ी कल्चर किस तरह कंगाल बना सकती है।
राजनीति में सब भाई भाई…
वैसे मुफ्त की रेवड़ियों की वजह से सिर्फ हिमाचल खस्ताहाल नहीं हुआ है। ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ कांग्रेस ने मुफ्त की रेवड़ियों के वादे को चुनावी हथियार बनाया है। हमाम में सब नंगे हैं। कांग्रेस हो या बीजेपी, आम आदमी पार्टी हो या कोई और पार्टी। महाराष्ट्र में बीजेपी गठबंधन सरकार में शामिल है। उसने भी हाल में महिलाओं के लिए कैश बेनिफिट ट्रांसफर योजना का ऐलान किया है। मध्य प्रदेश में इस तरह की योजना पहले से लागू है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार इस तरह की योजना पर काम कर रही है। उसके तो सत्ता में आने और बने रहने का श्रेय ही मुफ्त बिजली-पानी जैसे वादों और स्कीम को जाता है। पंजाब में भी यही हाल है। दक्षिण के कई राज्यों में तो टीवी, फ्रीज, साड़ी, आभूषण देने जैसे चुनावी वादे आम हैं। कुल मिलाकर, तकरीबन सभी पार्टियां मुफ्त की रेवड़ियों को सत्ता में आने की सीढ़ी के तौर पर इस्तेमाल कर रही हैं। उन सभी के लिए चेतने का समय है। जनता के लिए भी चेतने का समय है कि मुफ्त की रेवड़ियों के लालच में उनका बुरा हाल हो सकता है।
चुनाव आयोग को भी सख्ती दिखानी पड़ेगी। उसने सख्त रुख अपनाने का संकेत दिए थे। अक्टूबर 2022 में आयोग ने राजनीतिक दलों को लेटर लिखा था कि सिर्फ वादों से काम नहीं चलेगा, ये भी बताना होगा कि वे आखिर पूरे कैसे होंगे? उनके लिए पैसे कहां से आएंगे? यानी पार्टियों को चुनावी वादों को पूरा करने का पूरा रोडमैप बताने को कह दिया था। कह दिया कि चुनाव में सिर्फ वैसे ही वादे किए जाएं जिन्हें पूरा करना मुमकिन हो। लेकिन आयोग के खत से कई पार्टियां ऐसे तिलमिला गईं कि उसे ‘लोकतंत्र की ताबूत में कील’ करार दे दिया। तमाम पार्टियां ऐसे भड़क गईं जैसे मुफ्त की रेवड़ियों के वादे उनके जन्मसिद्ध अधिकार हों।